अक्सर युद्ध का ढिंढोरा पीटने वले चीन के लिए 19 अगस्त की तारीख कभी न याद रखने वाले दुस्वपन्न की तरह है| क्यूंकि 1941 में आज ही पैदा हुए रायफल मेंन जसवंत सिंह रावत ने दुनिया के युद्ध इतिहास में कभी न दोहराई गयी बहादुरी से ड्रेगन सेना की आग को सीज फायर में तब्दील कर दिया था | अरुणाचल प्रदेश के नुरानांग पोस्ट को 72 घंटे में 300 सैनिकों की कब्रगाह बनाकर 17 नवंबर 1962 में शहीद हुए इस जांबाज़ की शौर्यगाथा सुनकर ही चीनी कमांडरों को युद्ध ज़ारी रखने में होने वाले नुकसान का अंदाज़ा हो गया था, यही वज़ह रही कि दो दिन बाद ही 19 नवंबर को चीन ने युद्ध विराम एक तरफ़ा घोषणा कर डाली|
इतिहास को अक्सर सहूलियत के चश्मे से लिखने पढ़ने की परम्परा हमारे देश में रही है| जाने अनजाने ऐसा ही कुछ हुआ 14 हज़ार फीट पर तीन दिन में चीन की एक लगभग पूरी बटालियन को नेस्तनाबूद करने वाले महामानव बने एक उत्तराखंड के पौड़ी निवासी और 4 गढ़वाल राइफल में तैनात रायफल मेंन जसवंत सिंह रावत के साथ| अफ़सोस है कि भारतीय सेना के तत्कालीन कुछ बड़े अधिकारिओं के अहंकार ने पोस्ट से पीछे हटने की आज्ञा का उलघंन करने के आरोप में इस वीर को भगोड़ा घोषित कर दिया था| शुक्र है चीनी सेना के कमांडरों का जिन्होने जसवंत सिंह की शहादत से दुनिया को रूबरू कराया|
दरअसल इस अविश्वसनीय बहादुरी के मात्र दो पक्ष ही गवाह थे, एक स्वयं जसवंत और दूसरा चीनी बटालियन| इकलौते भारतीय सैनिक से 300 जानो की कीमत देकर मिली इस जीत से चीनी सैनिक इतना निराश हुए कि खीझस्वरुप उन्होंने इस रणबांकुरे के शीश को अपने कमांडर के सामने पेश किया| अपने कमांडरों के माध्यम से उन्होंने दुनिया के सामने ज़ाहिर किया कि 14 नवंबर 1962 से 17 नवंबर 1962 तक जांबाज़ जसवंत अकेले पोस्ट के इर्दगिर्द ठिकाने बदल-बदल कर फायरिंग करता रहा, जिससे उन्हें सूचना के विपरीत वहां पूरी हिन्दुस्तानी बटालियन होने का भ्रम बना | ऐसे असंभव कार्य में भारतीय जांबाज़ की मदद की शैला और नूरा नाम की दो बहादुर बहनों ने | एक नज़र में फ़िल्मी महसूस होने वाली इस हकीकत में जसवंत ने अपनी बटालियन को मिले पोस्ट छोड़ने के आदेश को ठुकराकर स्वयं शहीद होने का विकल्ल्प चुना था | शायद इस अनोखी लड़ाई में कुछ और बेहतर होता, गर उनको रसद पहुचाने वाला मुखबरी न करता| अकेले होने की पुख्ता जानकारी के बाद उत्साहित चीनी बटालियन ने पोस्ट पर चारों और से हमला कर दोनों बहादुर बहनों के साथ रायफल मेंन जसवंत को शहादत का मौका दिया|
ऐतिहासिक तथ्यों से भी साबित हुआ कि लगभग हारने की कीमत पर हासिल इस जीत ने चीनी कमांडरों को अहसास करा दिया कि अब आगे भारत से लड़ना नुकसानदायक होगा| लिहाज़ा जसवंत की शहादत के ठीक दो दिन बाद 19 नवंबर 1962 को चीन ने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर दी| तत्कालीन रक्षा मंत्री वी के मेनन और ज़नरल कॉल की हार में हुई खामियों छुपाने की रणनिति की तर्ज़ पर मोर्चे पर मौजूद भारतीय कमांडरों ने भी स्थानीय लोगो से मिली इस अदभुत वीरता की जानकारी को नज़रंदाज़ किया| चीनी सेना द्वारा इस महायोद्धा के शीश को कांसे की उसकी प्रतिमा और वीरता प्रसस्ती पपत्र के साथ ससम्मान लोटाने के बाद ही भारत सरकार ने अपने इस भगोड़े साबित सैनिक को महावीर चक्र से नवाज़ा| वहां बनाया गया शहीद जसवंत का स्मारक, अद्म्भ्य साहस, वीरता और देशभक्ति की अनूठी मिसाल को दर्शाता है| कभी न रिटायर्ड होने वाले दुनिया के इस एकमात्र सैनिक के आज भी ड्यूटी पर होने का अहसास वहां तैनात सैनिकों को अक्सर होता है| अफ़सोस होता है कि शहीद जसवंत के परिजनों और स्थानीय लोगों, जनप्रतिनिधयों की मांग के वावजूद भारत माता के गले में सुशोभित परमवीर चक्रों की माला में जसवंत सरीखा मोती आज तक नहीं पिरोया गया|